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मैं भारत का पीएमः एक कागज के पर्ची से pm बने नेहरु

 पटेल को चुनना चाहती थीं 80% कांग्रेस कमेटियां, लेकिन गांधीजी अड़ गए...


आजाद भारत में प्रधानमंत्री का पद सबसे ताकतवर और रुतबे वाला होता है। पिछले 77 सालों में PM की कुर्सी तक पहुंचने का सपना बहुतों ने देखा, लेकिन इस पर बैठने का मौका अब तक सिर्फ 14 शख्सियतों को मिला है। किसी को जनता का अपार समर्थन मिला, तो किसी को इसके लिए तिकड़म करनी पड़ी।

15 अगस्त 1947 से सालभर पहले ही साफ हो गया था कि भारत की आजादी अब ज्यादा दिन दूर नहीं। ये भी तय था कि कांग्रेस अध्यक्ष भारत के पहले अंतरिम प्रधानमंत्री बनेंगे, क्योंकि 1946 के सेंट्रल असेंबली चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला था।1940 के रामगढ़ अधिवेशन के बाद लगातार 6 सालों से मौलाना अबुल कलाम ही कांग्रेस अध्यक्ष चुने जा रहे थे। 

कांग्रेस प्रेसिडेंट के चुनाव की घोषणा हुई, तो अबुल कलाम फिर चुनाव लड़ना चाहते थें। लेकिन तब तक गांधी, नेहरु के हाथ में कांग्रेस की कमान देने का मन बना चुके थे। 20 अप्रैल 1946 को उन्होने मौलाना को पत्र लिखकर कहा  कि वे एक स्टेटमेंट जारी करें कि अब वह अध्यक्ष नहीं बने रहना चाहते है।

गांधी ने साफ कर दिया था कि अगर अस बार मुझसे राय मांगी तो मैं जवाहर लाल को पसंद करुंगा। इसके कई कारण हैं। उनका मैं जिक्र नहीं करना चाहता।

उस वक्त कांग्रेस महासचिव रहे आचार्य जेवी कृपलानी अपनी किताब गांधी हिज लाइफ एंड थॅाट्र्रस में लिखते हैं कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक 11 दिसंबर 1945 को थी, जिसे आगे बढ़ाकर 29 अप्रैल 1946 किया गया। इसी दिन का कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होना था।

पटेल के साथ थीं 80% कांग्रेस कमेटियां, किसी ने नेहरु का नाम तक नहीं लिया

परंपरा के मुताबिक प्रांत की 15 कांग्रेस कमेटियां ही अध्यक्ष के नाम का प्रस्ताव रखती थीं। इनमें से 12 कमेटियों ने सरदार वल्लभ भाई पटेल का नाम प्रस्तावित किया। किसी भी कमेटी ने जवाहरलाल नेहरु का जिक्र तक नहीं किया।

कृपलानी अपनी किताब में लिखते हैं, मैने कमेटी के फैसले के बाद ,सरदार पटेल के नाम वाले प्रस्ताव का पर्चा गांधी के सामने पेश किया। गांधीजी ने इसे देखा तो नेहरु का नाम नहीं था। इसके बाद उन्होने बिना कुछ कहे मुझे वापस दे दिया. 

कृपलानी गांधीजी के साथ लंबे समय से काम कर चुके थे। वे गांधी की आंखों से समझ जाते थे कि वे अध्यक्ष बनाए जाने का प्रस्ताव था। इस पर सबने दस्तखत किए। सब जानते थे कि मन से गांधी नेहरु को ही अध्यक्ष और PM देखना चाहते हैं। अब भी मैदान में सरदार पटेल थे और उनके सामने नेहरु का जीतना बेहद मुश्किल था। 

गांधी जी जिद पर पटेल ने नाम वापस ले लिया

कांग्रेस महासचिव कृपलानी ने गांधी की मर्जी के अनुसार सरदार पटेल की वापसी का एक पत्र बनाया। पटेल ने इस पत्र पर दस्तखत करने से मना कर दिया। एक तरह से पटेल ने नेहरु का विरोध किया था। वो पत्र गांधी के पास पहुंचा तो उसमें पटेल के दस्तखत नहीं थें।

उन्होंने पटेल के पास वापस वो पत्र पहुंचाया। इस बार पटेल समझ गए कि गांधी अड़ गए हैं और  उन्होंने उस पर दस्तखत कर दिए। नेहरु को निर्विरोध कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया और इस तरह आजाद भारत को अंतरिम प्रधानमंत्री मिला।

                      


गांधी ने कहा - नेहरु विदेश में पढ़ा है, उसे अच्छी समझ है  

    उस समय हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम करने वाले वरिष्ट पत्रकार दुर्गा दास अपनी किताब इंडिया फ्रॉम कर्जन टु नेहरु एंड ऑफ्टर में लिखा है कि मैंने गांधीजी से अतरिम सरकार के नए PM को लेकर सरदार के बारे में बात की थी। तब गांधी ने कहा था कि नेहरु कभी नंबर दो पर ता नहीं करेगा।

अकेले नेहरु ही मेरे कैंप मे अंग्रेज है। वह अंग्रेजी तौर तरीके जानता है। विदेश में पढ़ा है। उसे विदेश मामलों की अच्छी समझ है। नेहरु अंतरराष्ट्रीय मामलों से अच्छे से निपट लेगा। पटेल देश को अच्छे से चला लेगा। ये दोनों देश चलाने वाली बैलगाड़ी के दो बैल होंगे।

दुर्गा दास लिखते हैं, मैंने एक बार डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से इस बारे में चर्चा की थी, तो उन्होने कहा था कि गांधी ने एक बार फिर से ग्लैमर के लिए अपने भरोसेमंद लेफ्टिनेंट का बलिदान कर दिया।

वरिष्ट पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, नेहरु एक विजनरी नेता थे, जिसके नेताओं को पूरी दुनिया के साथ एक जाजम पर बैठकर अपने तौर-तरीके से आगे बढ़ना था। कुछ साल बाद ही पटेल का निधन भी हो गया। इसके ये सिध्द होता है कि गांधीजी का फैसला सही था। 


जब गांधीजी ने नेहरु को लिखा -कुछ पैसो का बंदोबस्त करुं ?

जवाहरलाल नेहरु कैम्ब्रिज से वकालत की पढ़ाई करके लौटे थे। कुछ दिनों तक इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत की, लेकिन फिर ये पेशा छोड़कर गांधीजी के साथ आजादी की लड़ाई में कूद गए। उनके पास कोई इनकम नहीं थी। पिता मोतीलाल नेहरु हर महीने उन्हें पैसे दिया करते थे। इसी दौरान दोनों में किसी मुद्दे पर मनुटाव हो गया। नेहरु के सामने जेब खर्च का संकट हो गया था।

उर्दू के मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी उन दिनों कांग्रेस ऑफिस आनंद भवन में जवाहरलाल के साथ काम करते थे। फिराक गोरखपुरी से पढ़ लिया था।

15 सितंबर 1924 का ये पत्र जवाहरलाल नेहरु की किताब कुछ पुरानी चिटि्ठयां में प्रकाशित हुआ था। इसमें गांधी ने जवाहर को लिखा था कि मैं जानता हूं तुम इन चिजो का बहादूरी से मुकाबला करोगे। अभी तो पिता जी (मोतीलाल) चिढ़े हुए हैं। मैं नही चाहता की तुम या मैं उनकी झुंझलाहट बढ़ाने का जरा सा भी मौका दें। संभव हो तो उनसे बात करो।

क्या तुम्हारे लिए कुछ रुपए का बंदोबस्त करुं? तुम कुछ कमाई का काम हाथ में ले लो। कुछ समाचार पत्रों के संवाददाता बनोगे अध्यापकी करोगे ?

नेहरु ने चर्चिल से कहा-आपको पता है न, हम आप से डरते नहीं

सुभाष कश्यप ने अपनी किताब जवाहरलाल नेहरुः हिज लाइफ, वर्क एंड लीगेसी में ब्रिटेन के PM सर विंस्टन चर्चिल और नेहरु की मुलाकात के बारे में लिखा है। ये वो दौर था जब देश आजाद हो चुका था और नेहरु  PM थें। विंस्टन चर्चिल नेहरु के आलोचक थे। आलोचक क्या एक तरह से दुश्मन थे।

1950 में दोनों पहली बार मिले थे और दिल खोलकर एक दूसरे से बात कर रहे थे। चर्चिल ने गुलामी याद कराते हुए नेहरु से पूछा - तुम कितने दिन ब्रिटिश जेलों में सड़ते रहे। नेहरु ने कहा दस साल तक। चर्चिल ने कहा तब तो तुम्हारे दिल में हमारे लिए खूब कड़वाहट होनी चाहिए। तुम्हे दिल से हमसे नफरत करनी चाहिए। तब नेहरु बोले की कोई बात नहीं। हमें हमारे लीडर (गांधी)ने दो चीजें सिखाई हैं कभी किसी से नफरत मत करो और कभी किसी से डरो मत। आपको भी पता है कि हम न आप से डरते हैं और हां नफरत तो कतई नहीं करते।

जब नेहरु ने PM पद से इस्तीफा दे दिया 

लाल बहादूर शास्त्री की बायोग्राफी लिखने वाले सीपी श्रीवास्तव अपनी किताब अ लाइफ ऑफ ट्रूथ इन पॉलिटिक्स में लिखते हैं कि नेहरु जब दूसरी बार प्रधानमंत्री चुने गए, तो वो अपने काम से बोर हो गए । उन्होंने सोचा कि अब किसी और को प्रधानमंत्री बनने का मौका दिया जाना चाहिए। 29 अप्रैल 1958 को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक थी। इसमें नेहरु ने कहा कि वे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना चाहते हैं।

उन्होने कहा, मेरे सार्वजनिक राजनीतिक जीवन के 40 साल बेमिशाल रहे हैं। मैं अब इस बोझ को नहीं उठाना चाहता। मैं चाहता हूं, अब किसी और को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिले। मैं अब हिमालय जाना चाहता हूं। 

उन्होने बकायदा इसके लिए टिकट भी बुक करा लिया था। उन्होने कांग्रेस नेताओं को बताने से पहले इस्तीफा राष्ट्रपती राजेंन्द्र प्रसाद को भेज दिया था। राष्ट्रपति को नेहरु पहले ही इस्तीफे वाली बात बता चुके थे। 

कांग्रेस सांसद और लेखक शशि थरुर ने इस धटनाक्रम की पुष्टि भी की है। एक कार्यक्रम में उन्होने बताया था कि नेहरु छह महीने के लिए अपनी प्रिय जगह हिमालय जाने वाले थे, लेकिन कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने उनके इस्तीफे को अस्वीकार कर दिया। कांग्रेस नेताओं ने कहा कि आपको ही देश चलाना पड़ेगा।

इसके बाद नेहरु ने इस्तीफा वापस ले लिया था। तब तक इस्तीफे की खबर पूरी दुनिया में फैल चुकी थी। वो आज का दौर नहीं था। नेहरु का इस्तीफा वापस लेने की खबर दो-तीन बाद दूसरे देशों में गई तो उस समय हजारों टेलीग्राम आए थे। उनमें नेहरु को इस्तीफा वापस लेने के लिए बधाई दी गई थी।.

चीन की हार से टूट गये, बीमार रहने लगे

20 नवंबर 1962 को प्रधानमंत्री नेहरु ने चीन के साथ युद्ध में भारत की हार स्वीकार कर ली थी। युद्ध शुरु होने से पहले तक उन्हें भरोसा था कि चीन उनका दोस्त हैं।

जवाहर नेहरुः एक बायोग्राफी में सर्वपल्लीगोपाल लिखते हैं कि तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णनन ने अपनी ही सरकार पर गंभीर आरोप लगाते थे। उन्होंने नेहरु के फैसले पर सवाल उठाए थे। एक के बाद एक सरकार और कांग्रेस नेता दबी जुबान में चीन युद्ध के लिए नेहरु को जिम्मेदार मानते थे। 

नेहरु गंभीर रुप से बीमार हो गए थे। उन्हें स्वास्थ लाभ के लिए करीब एक साल कश्मीर में रहना पड़ा था। वे साल भर में भले ही शारीरिक रुप से ठीक हो गए हों, लेकिन मानसिक रुप से टूट गए थे। वे मई 1964 को दिल्ली लौटे।

27 मई को जब बाथरुम से लौटे तो पीठ दर्द की शिकायत की। तुरंत डॉक्टरों को बुलाया गया। इतने में वे बेहोश हो चुके थे। 27 मई 1964 की दोपहर 2 बजे बेहोशी की हालत में ही दील का दौरा पड़ने से उनका निधन हो चुका था।

वसीयत में लिखा मेरी राख को खेतों में उड़ा देना 

नेहरु ने निधन से पहले ही वसीयत लिख दी थी। उन्होंने साफ लिख दिया था कि कोई कर्मकांड यानी तेरहवीं वगैरह न की जाए। 

उन्होने लिखा था, मैं पूरी गंभीरता से ये  ऐलान करना चाहता हुं कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे कोई धार्मिक अनुष्ठान न किया जाए। इस तरह के अनुष्ठान में मेरी कोई आस्था नहीं हैं। मैं चाहता हुं कि मेरे मरने के बाद मेरा दाह संस्कार हो। 

अगर मैं विदेश में मरुं तो वहीं मेरा दाह संस्कार किया जाए, लेकिन मेरी अस्थियां इलाहाबाद लाई जाएं। इनमें से मुट्ठीभर गंगा में प्रवाहित की जाएं। मै चाहता हुं कि बाकी हिस्से को आकाश में ऊंचे विमान में ले जाया जाए। वहां से उन खेतों पर बिखेर दिया जाए जहां हमारे किसान मेहनत करते हैं।  

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