'गूंगी गुड़िया' से आयरन लेडी बनीं पीएम इंदिरा के किस्से...
1959 के अगस्त की एक सुबह। इलाहाबाद के आनंद भवन में खाने की मेज पर प्रधानमंत्री नेहरू, उनकी बेटी इंदिरा और दामाद फिरोज गांधी बैठे थे। हमेशा की तरह बात सियासत पर छिड़ी और इस बार बहस में बदल गई। मुद्दा था केरल की पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त करना।
उस वक्त इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं और उनके दबाव में ही केरल की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था। डाइनिंग टेबल की उस बहस के दौरान फिरोज ने इंदिरा की तरफ इशारा करते हुए कहा- ये तो फासीवाद है।
इस किस्से का जिक्र करते हुए स्वीडिश पत्रकार और लेखक बर्टिल फाल्क अपने एक आर्टिकल में लिखते हैं, ‘फिरोज गांधी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अपनी पत्नी की तानाशाही प्रवृत्ति को पहचान लिया था।’
इस घटना के 7 साल बाद 1966 में जब शास्त्री के निधन के बाद नया प्रधानमंत्री चुनने की बारी आई, तो कांग्रेस सिंडिकेट भी इंदिरा की इस प्रवृत्ति को भांप नहीं पाया। सिंडिकेट यानी वो पुराने कांग्रेसी, जो संगठन और सरकार पर हावी रहते थे।
'मैं भारत का पीएम' सीरीज के तीसरे एपिसोड में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने की कहानी और उनसे जुड़े किस्से…
शास्त्री का निधन और नए प्रधानमंत्री की कवायद
11 जनवरी 1966 की देर रात... उस वक्त के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद में निधन हो गया। एक तरफ उनका शव भारत लाने की तैयारी चल रही थी, तो दूसरी तरफ भारत में कांग्रेस के अंदर प्रधानमंत्री की कुर्सी की रेस एक बार फिर शुरू हो चुकी थी। मोरारजी देसाई एक बार प्रधानमंत्री बनने से चूक गए थे, लेकिन इस बार वो मौका नहीं गंवाना चाहते थे।
मोरारजी के रास्ते में कांग्रेस सिंडिकेट खड़ा था। इसमें के. कामराज, नीलम संजीव रेड्डी, एस. निजलिंगप्पा, एस के पाटील, हितेंद्र के देसाई, वीरेंद्र पाटील, सी.एम. पूनाचा, अतुल्य घोष, सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, चंद्रभानु गुप्ता, पी.एम. नादगौड़ा, अशोक मेहता, त्रिभुवन नारायण सिंह, राम सुभग सिंह और बीडी शर्मा जैसे नेता थे।
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक सागरिका घोष अपनी किताब ‘इंदिरा इंडियाज मोस्ट पावरफुल प्राइम मिनिस्टर' में लिखती हैं कि शास्त्री के निधन के बाद एक बार फिर सिंडिकेट एक्टिव हो गया था। सिंडिकेट कांग्रेस अध्यक्ष कामराज को प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए मानने में जुट गया।
कामराज ये बात जानते थे कि उस समय देश एक गैर-हिंदी भाषी साउथ इंडियन को पीएम स्वीकार नहीं करेगा। इस कारण उन्होंने सिंडिकेट से कहा कि मुझे रहने ही दो। न ठीक से हिंदी जानता हूं, न अंग्रेजी, फिर कैसे पीएम बन सकता हूं।
सिंडिकेट कामराज की बात से सहमत हो गया, लेकिन वो मोरारजी देसाई को पीएम की कुर्सी से दूर रखना चाहता था। उनका मानना था कि मोरारजी पीएम बन गए तो किसी की नहीं सुनेंगे। ये वो समय था, जब इंदिरा गांधी सूचना प्रसारण मंत्री थीं। संसद में किसी भी प्रश्न का उत्तर देने में उनके हाथ-पैर कांपते थे। लोग उन्हें गूंगी गुड़िया कहने लगे थे।
ये गूंगी गुड़िया सिंडिकेट के लिए परफेक्ट चॉइस थी। नेहरू की बेटी होने के कारण उन्हें कोई खारिज नहीं कर सकता था। सिंडिकेट उनके मार्फत सरकार में मनमानी कर सकता था। 1967 के आम चुनाव में 13 महीने बाकी थे। इंदिरा राष्ट्रीय चेहरा थीं। उनके चेहरे पर आसानी से वोट भी मांगे जा सकते थे।
सागरिका लिखती हैं, 'एक बार मोरारजी देसाई सार्वजनिक तौर पर बोल चुके थे कि वे ही पीएम होंगे, लेकिन इंदिरा ने इस बात को जाहिर नहीं होने दिया था। इंदिरा ने सही समय का इंतजार किया। उन्होंने बस इतना कहा कि वो वही करेंगी, जो कामराज चाहते हैं।'
जब मोरारजी को लगा कि दूसरी बार भी पीएम पद उनके हाथ से चला जाएगा तो उन्होंने कामराज से कहा कि पीएम कौन होगा, इसका फैसला चुनाव से होना चाहिए। 19 जनवरी 1966 को इंदिरा और मोरारजी के बीच चुनाव हुआ। इंदिरा को 355 और मोरारजी को 169 वोट मिले। इस तरह से वो पीएम चुनी गईं।
24 जनवरी 1966 को शपथ ग्रहण के साथ वो देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं। इसके बाद 1967, 1971 और 1980 के चुनावों में जीतकर फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठीं।
अमेरिका गईं तो अखबारों ने लिखा- भीख मांगने आई हैं
1965 के बाद 1966 में भी पर्याप्त बारिश नहीं होने से सूखा पड़ा था। 1965 की जंग के बाद अमेरिका ने भारत और पाकिस्तान दोनाें को ही मदद देना बंद कर दिया था। देश को मदद की जरूरत थी। इस कारण इंदिरा गांधी पहली बार प्रधानमंत्री के तौर पर विदेश दौरे पर अमेरिका गई थीं। तब अमेरिकन अखबारों ने लिखा कि न्यू इंडियन लीडर 'कम्स बेगिंग' मतलब भारत की नई नेता भीख मांगने चली आई हैं।
पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह अपनी बायोग्राफी ‘वन लाइफ इज नॉट एनफ' में लिखते हैं, ‘मिसेज गांधी अपने पहले विदेशी दौरे पर अमेरिका गईं। मैं उस समय न्यूयॉर्क में डिप्टी सेक्रेटरी पद पर था। अचानक मेरा तबादला दिल्ली में पीएम सेक्रेटेरियट कर दिया गया। इसे आज का पीएमओ कह सकते हैं। सब मेरे तबादले से चौंके हुए थे।’
वे बताते हैं कि इंदिरा पश्चिम में बड़ी हुई थीं। उन्हें कपड़े सलीके से पहनना आता था। अमेरिका दौरे में वे साड़ी के साथ हील्स पहनती थीं। उन्होंने अपने आप को बेहद फैशनेबल पेश किया था ताकि अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बेन्स जॉनसन को ये न लगे कि किसी कमतर महिला से रूबरू हो रहे हैं।
1967 के लोकसभा चुनाव में नाक टूटने के बाद भी भाषण देती रहीं
1967 के लोकसभा चुनाव 15 से 21 फरवरी को होने थे। इंदिरा गांधी जोरदार चुनाव प्रचार कर रही थीं। 8 फरवरी को इंदिरा भुवनेश्वर में एक रैली को संबोधित कर रही थीं।
इंदिरा गांधी की बुआ कृष्णा हठीसिंह अपनी किताब ‘इंदु से प्रधानमंत्री' में लिखती हैं कि ओडिशा में स्वतंत्र दल वालों का दखल ज्यादा था। उन्हें पूरा भरोसा था कि वे बहुमत से जीतेंगे। इंदिरा के भाषण से वे नाराज थे। कुछ लोगों ने सभा में हंगामा शुरू कर दिया। इंदिरा को बोलते हुए थोड़ी देर ही हुई थी कि भीड़ से पत्थरों की बरसात होने लगी। एक पत्थर इंदिरा की नाक पर लगा और खून बहने लगा।
कृष्णा लिखती हैं, ‘वहां मौजूद सुरक्षा ऑफिसर और स्थानीय कांग्रेस के नेता इंदिरा को मंच के पीछे सुरक्षित स्थान पर ले जाना चाहते थे। इंदिरा ने किसी की नहीं सुनी। वह मंच पर डटी रहीं। उनकी नाक से खून बह रहा था। नाक पर रूमाल लगाकर उपद्रवियों को लगभग ललकारते हुए इंदिरा ने कहा- ये मेरा नहीं देश का अपमान है, क्योंकि मैं प्रधानमंत्री होने के नाते देश का प्रतिनिधित्व करती हूं।’
नटवर सिंह ‘वन लाइफ इज नॉट एनफ' में लिखते हैं कि इंदिरा जी की नाक से लगातार खून बह रहा था, लेकिन अफसोस इस बात का था कि किसी को भी उनका ब्लड ग्रुप तक नहीं पता था।
कृष्णा हठीसिंह लिखती हैं, ‘इसके बाद इंदिरा कलकत्ता में भी टूटी नाक लेकर ही एक सभा को संबोधित करने गई थीं। दिल्ली जाकर उसने जांच कराई तो पता चला कि उनकी नाक टूट गई है।
जब वह ऑपरेशन के बाद घर लौट आईं तो मैंने बंबई से फोन करके हालचाल पूछा। इंदिरा ने मजाकिया अंदाज में बताया कि बुआ मैंने होश आते ही डॉक्टर से पूछा कि आपने प्लास्टिक सर्जरी करके मेरी नाक को सुंदर तो बना दिया ना? आपको तो पता है ना मेरी नाक कितनी लंबी है? बुआ मेरी नाक को खूबसूरत बनाने का एक मौका हाथ लगा था, लेकिन कमबख्त डॉक्टरों ने कुछ न किया और मैं वैसी ही रह गई।’
1971 का युद्ध: अमेरिका के आने से पहले ही पाक ने समर्पण कर दिया
पाकिस्तान ने 3 दिसंबर 1971 को ऑपरेशन ‘चंगेज खां' के तहत कश्मीर पर हमला कर दिया था। पश्चिमी हिस्से से पाक वायुसेना ने बम गिराने शुरू कर दिए थे। ये वो दौर था जब पूर्वी पाकिस्तान जिसे हम आज बांग्लादेश कहते हैं, वहां पाक सेना के अत्याचारों के चलते रोज एक लाख शरणार्थी भारत आ रहे थे। अमेरिका ने भी इस पर दखल देने से मना कर दिया था। जब पाक ने हमला किया, इंदिरा कलकत्ता में एक सभा में भाषण दे रही थीं।
सागरिका घोष अपनी किताब में लिखती हैं कि इंदिरा ने हमले की खबर सुनकर कहा कि थैंक्स गॉड उन्होंने हम पर हमला कर दिया। हमारे पास अब युद्ध करने का सही कारण है। इंदिरा ने सेना को आदेश दिया और पाकिस्तान पर चढ़ाई कर दी।
12 दिसंबर को अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद के लिए अपना सातवां बेड़ा रवाना किया। इसमें 70 जहाज और पनडुब्बियां, 150 हवाई जहाज और 20 हजार नौसैनिक थे। यह अमेरिका का सबसे बड़ा बेड़ा था।
इस दिन इंदिरा दिल्ली के रामलीला मैदान में एक सभा को संबोधित कर रही थीं। उन्होंने कहा कि हम किसी से डरेंगे नहीं किसी के आगे झ़ुकेंगे नहीं। इंदिरा ने कहा कि हम अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ेंगे। जरूरत पड़ी तो हम दुश्मन का मुकाबला मुक्कों से भी करेंगे।
हालांकि टकराव की नौबत आई ही नहीं, क्योंकि 14 दिन में ही लड़ाई खत्म हो गई। जब 7वां बेड़ा बंगाल की खाड़ी में पहुंचा, उससे पहले ही पाकिस्तान ने आत्मसमर्पण कर दिया। दुनिया में पहली बार 93 हजार सैनिकों ने हथियार डाले थे। इस तरह बांग्लादेश का जन्म हुआ था।
इमरजेंसी: जगजीवन राम ने कहा और इंदिरा ने इस्तीफा देने का मन बदल दिया
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देशभर में इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रदर्शन किए जा रहे थे। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया और छह साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी।
इंदिरा पर आरोप था कि उनके निजी सचिव यशपाल कपूर ने चुनाव के दौरान उनके एजेंट के रूप में काम किया जबकि वे सरकारी नौकर थे। कोर्ट ने ये भी पाया कि 1971 की चुनावी सभा के दौरान लाउडस्पीकर के लिए सरकारी बिजली उपयोग की गई थी। इस फैसले के बाद उन्हें पद से हटना था।
इंदिरा गांधी की अच्छी दोस्त रहीं पुतल जयकर अपनी किताब ‘इंदिरा: ए बायोग्राफी' में लिखती हैं, ‘इंदिरा तो पद से हटने का मन बना चुकी थीं। उनका छोटा बेटा संजय जब अपनी मारुति कार के कारखाने से शाम को लौटा तो उन्होंने चीखते हुए कहा कि मां का इस्तीफा देने का कोई सवाल खड़ा नहीं होता। उन्होंने कहा कि आज जो वफादारी की कसम खा रहे हैं। सत्ता हाथ आते ही पीठ में छुरा भोंक देंगे।’
इंदिरा गांधी के निजी सचिव रहे आरके धवन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि इंदिरा अपना इस्तीफा टाइप करवा चुकी थीं, लेकिन उस पर उन्होंने कभी दस्तखत नहीं किए।
इंदिरा के राजनीतिक सलाहकार रहे सिद्धार्थ शंकर रे ने एक इंटरव्यू में बताया था कि इंदिरा पद से हटने का मन बना चुकी थीं। इस दौरान बाबू जगजीवन राम ने इंदिरा से कहा था कि मैडम आपको इस्तीफा नहीं देना चाहिए। यदि आप पद छोड़ भी रही हैं तो आपके उत्तराधिकारी का चुनाव हम पर छोड़ दीजिए।
ये सुनने के बाद इंदिरा ने अपना इरादा बदल दिया और उन्हें संजय की बात पर भरोसा हो गया था। इस घटना का जिक्र सागरिका घोष ने अपनी किताब इंडियाज मोस्ट पावरफुल प्राइम मिनिस्टर में भी किया है।
इंदिरा ने 25 जून को देश में आपातकाल घोषित कर दिया था। इसके बाद विपक्ष के सारे नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। प्रेस पर सेंशरशिप लग चुकी थी। नसबंदी और कई कार्यक्रमों ने जनता को नाराज कर दिया था। 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक के 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। इसके बाद चुनाव हुए और कांग्रेस की हार हुई। वो सिर्फ 153 सीटों पर सिमट गई।
हाथी पर बैठकर दलितों से मिलने पहुंचीं, दोबारा पीएम बनीं
कांग्रेस की हार के बाद देश में जनता पार्टी की सरकार आई। मोरारजी देसाई को पीएम बनाया गया। जनता सरकार में मंत्रालयों को लेकर आपसी झगड़े शुरू हो चुके थे। इंदिरा गांधी कुछ महीने चुप रहीं। इस दौरान बिहार के बेलछी में दंबगों ने दलितों पर गोली चला दी और 11 को जलाकर मार डाला।
चार महीने पहले ही कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुआ था और इंदिरा बुरी तरह चुनाव हारी थीं। इंदिरा बेलछी के लिए रवाना हुईं। वे पटना तक ट्रेन से पहुंचीं। उसके बाद जीप से पहुंचीं। जब जीप फंस गई तो ट्रैक्टर में बैठीं, लेकिन वो भी फंस गया। फिर इंदिरा ने साड़ी टखनों तक ऊपर की और कीचड़ में चलने लगीं।
बिहार के वरिष्ठ पत्रकार रहे स्वर्गीय जर्नादन ठाकुर अपनी किताब ‘इंदिरा गांधी एंड हर पावर गेम' में लिखते हैं, ‘इंदिरा ने कीचड़ में कदम बढ़ाए। इस दौरान किसी ने सुझाव दिया कि हाथी से भी जाया जा सकता है। इंदिरा ने कहा कि हाथी का इंतजाम कीजिए। इसके बाद इंदिरा बेलछी पहुंचीं। लंदन के गार्जियन ने लिखा कि इंदिरा के वोटरों ने उन्हें दस मिनट में माफ कर दिया।’
लौटते वक्त इंदिरा ने अपने धुर विरोधी रहे जयप्रकाश नारायण से मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद जेपी जब तक जीवित रहे, उन्होंने कभी इंदिरा के खिलाफ बयान नहीं दिया। तीन साल बाद 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए और एक बार फिर इंदिरा गांधी और कांग्रेस ने वापसी की। कांग्रेस को 353 सीटें मिलीं।
ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद उनके ही बॉडीगार्ड्स ने छलनी कर दिया
1980 के दशक की शुरुआत से ही पंजाब में खालिस्तान की मांग जोर पकड़ चुकी थी। ये आंदोलन जरनैल सिंह भिंडरांवाले की लीडरशिप में चल रहा था। भिंडरांवाले ने अमृतसर स्थित हरिमंदिर साहिब परिसर को अपना मुख्यालय बना रखा था। उसको पकड़ने के लिए इंदिरा गांधी के आदेश पर सेना ने हरिमंदिर साहिब में प्रवेश किया था। खूब खून खराबा हुआ था। सिख इससे काफी नाराज थे।
30 अक्टूबर 1984 का दिन था। इंदिरा गांधी ओडिशा के भुवनेश्वर में रैली कर रही थीं। तभी इंदिरा अपनी पहले से तय स्पीच से इतर कहने लगीं, ‘मैं आज यहां हूं। कल शायद यहां न रहूं। मुझे चिंता नहीं मैं रहूं या न रहूं। मेरा लंबा जीवन रहा है और मुझे इस बात का गर्व है कि मैंने अपना पूरा जीवन अपने लोगों की सेवा में बिताया है। मैं अपनी आखिरी सांस तक ऐसा करती रहूंगी और जब मैं मरूंगी तो मेरे खून का एक-एक कतरा भारत को मजबूत करने में लगेगा।’
इसके 24 घंटे बाद 31 अक्टूबर 1984 के दिन शाम को खबर आती है कि देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी नहीं रहीं। इंदिरा के ही 2 सिख गार्डों ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। देश के लोग अवाक रह गए। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी को अपनी मौत का अनुमान हो गया था।
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